पढे़-लिखें लोगों की जिम्मेदारी

भाषा के कारण समाज के स्वाभिमान का परिचय होता है। समाज जीवन के ‘स्व’ का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। चाहे व्यक्ति हो या समाज, यदि प्रगति करनी हो तो अपने पैरों में गति होनी चाहिए, अन्यों के सहारे नहीं।

भारतीय विचार कहता है – ‘आ नो भद्रः क्रतवो यन्तु विश्वतो’। शुभ विचार विश्व की किसी भी दिशा से आते है तो उसका स्वाागत है। वैसे ही भाषा समृद्धि के लिए यदि अन्य भाषाओं की अच्छी बातों का स्वीकार किया, तो वह स्वागत योग्य है परन्तु आँखें बंद कर यदि दूसरों का केवल अनुसरण किया तो कुछ मिलना तो दूर, अपना खोने की नौबत आती है। यदि समाज के प्रबुद्धजन भाषा के प्रति उदासिन रहे तो एक दिन उस समाज समूह के अस्तित्व पर ही संकट उपस्थित होता है। अतः अपनी भाषा के प्रति मन में गौरव रखते हुए उसके माध्यम से शिक्षा व्यवस्था प्रवाहित करना न केवल आवश्यक अपितु विकास हेतु उपयोगी सिद्ध होता है।

एक नवजात बालक अपनी माता की बोली का ही अनुसरण करता है। शिशु के लिए अपनी माँ के बोल ग्रहण करना सबसे अधिक सरल है और वैज्ञानिक भी। इसलिए अपनी स्वयं की भाषा को मातृभाषा ही कहा गया है। अतः मातृभाषा को माध्यम बनाकर यदि शिक्षा प्रारम्भ होती है तो बालक के ग्रहणशीलता के लिए वह सर्वोत्कृष्ट है।


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जैसे ही मातृभाषा की बात आती है कि कुछ लोगों को लगता है, अब अंग्रेजी भाषा का विरोध सुनने को मिलेगा। यह बहुत बड़ा भ्रम है। मातृभाषा में शिक्षा का प्रारम्भ अथवा उसे सीखने का आग्रह अर्थात न तो अंग्रेजी का विरोध, न ही उससे दूरीं। क्योंकि एक भाषा के नाते न केवल अंग्रेजी अपितु विश्व की कोई भी भाषा सीखना गैर नहीं है। यदि हमें अंग्रेजी सीखनी है तो अच्छे से अच्छी अंग्रेजी सीखनी चाहिए। परन्तु उसके लिए अपनी शिक्षा का माध्यम अंगे्रजी होना अनिवार्य नहीं है।

शिक्षा का माध्यम मातृभाषा से अधिक वैज्ञानिक दूसरा कोई नहीं, यह पहले भी सत्य था और आज भी सत्य है। वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘नीति दृष्टिपत्र’ में भी जनजाति समाज के शिक्षा प्रचार में मातृभाषा भाषा एवं वर्तमान समय में बोली जाने वाली स्थानीय बोली में शिक्षा का सुझाव दिया है। कुछ समय पूर्व नई शिक्षा नीति की घोषणा हुई, उसमें भी मातृभाषा में शिक्षा का उल्लेख है। कई भाषा शास्त्री और मनोवैज्ञानिक भी ऐसा ही कहते है। जपान हो या जर्मनी, फ्रान्स हो या इजरायल सभी ने अपनी भाषा के आधार पर ही देश की प्रगति की है। उन्हें अंग्रेजी के सहायता की अनिवार्यता नहीं लगी। परन्तु जहाँ-जहाँ अंग्रेजों ने अतीत में कभी राज किया वहाँ की परिस्थिति भिन्न है। अंग्रेजों ने वहाँ के लोगों की मानसिकता बदलने के प्रयास किये। उसमें भारत भी अपवाद नहीं। आज भारत में लाखों लोग मिलेंगे जो अपने आपको पढ़ा-लिखा सिद्ध करने के लिए अंग्रेजी की सहायता लेते है।

भारत में जो प्रादेशिक भाषाएँ है जैसे हिन्दी, मराठी, गुजराती, कन्नड, मलयालम… और कई…, सभी राष्ट्रीय भाषाएँ है। उनके प्रति मन में अभिमान होना ही चाहिए, चाहे अंग्रेजी कितनी भी अच्छी सीखें। परन्तु अंग्रेजी माध्यम से जिनकी पढ़ाई होती है उनके मन में अपनी मातृभाषा के प्रति वैसा आदर नहीं देखने को मिलता यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह देख कर एक बात दृढ़ होती है कि विद्यार्थी के शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए।

अब बात करते है जनजाति भाषाओं के बारे में – देश के जनजाति क्षेत्र में कई बोलियाँ देखने को मिलती है। सभी के पास अपनी लिपि नहीं है। इसलिए जनजाति परिवारों में जो ज्ञान भण्डार है वह अधिकतम मौखिक रूप में है। संताली और बोडो जैसी कुछ भाषाएँ है जिनकी देवनागरी लिपि है। इन भाषाओं में विपूल साहित्य का निर्माण हुआ है। आज संताली और बोडो में पढ़ाई करना सम्भव है। भारतीय संविधान में इन दोनों भाषाओं का अनुसूची में समावेष भी है। परन्तु अन्य जनजाति बोलियों की स्थिति बड़ी विकट है। ऐसा लगता है कि कुछ वर्षों के पश्चात जनजाति क्षेत्र की कुछ बोलियों में बात करने वाले कोई नहीं मिलेंगे। उनका अस्तित्व संकट में है।

थोडा विचार करेंगे तो ऐसा ध्यान में आता है कि पिछले कुछ वर्षों में जनजाति क्षेत्र में शिक्षा प्रतिशत बढ़ा, उसके चलते कुछ युवक पढ़-लिख कर आगे आए। व्यवसाय की खोज़ में शहरों में आकर बसे अथवा गाँव में कोई छोटा-मोटा व्यवसाय करने लगे। इन पढ़े-लिखें वर्ग का अपनी बोली के साथ सम्पर्क नहीं रहा। उन्हें अपनी गाँव की बोली में बात करना पिछड़ापन सा अनुभव होने लगा। इसके कारण जनजाति गाँवों में या तो अनपढ़, या कुछ बुढे़ अपनी परम्परागत ग्रामीण बोलियों में बात करते दिखाई देते है। अपने पुरखों से चली आई बोली में बात करने का अभिमान यदि जनजाति परिवारों में होता, तो वे शिक्षित होने के पश्चात भी अपनी बोली में बात करते। बोली के प्रति गौरव, बातचीत से प्रगट होता। परन्तु ऐसा देखने को नहीं मिलता। इसके कारण जनजाति बोलियों में बात करने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होते दिखाई देती है। ये अंतर दो-चार दिन में ध्यान में नहीं आता परन्तु एक पीढि के पश्चात परिणाम देखने को मिलता है।

मन में विचार आता है – समस्या तो ध्यान में आई परन्तु इसका समाधान क्या ? ऐसा कह सकते है कि अभी भी पानी पूरा बह नहीं गया। कुछ प्रयास करने की गुंजाईश अभी भी है। आज जनजाति समाज में जो पढे़-लिखें लोग है उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को निभाना चाहिए। अपनी बोली में बात करना शुरू करना चाहिए। जब दो जनजाति व्यक्ति मिलते है तो अपनी बोली मे बात करनी चाहिए। घरों में भी जनजाति बोली में ही बात करनी चाहिए। सार्वजनिक स्थान पर अथवा ग्रामीण कार्यक्रमों जैसे ग्रामसभा, चैपाल इत्यादि में जनजाति बोलियों में ही बात करनी चाहिए। कोई व्यक्ति प्रयास करता है तो उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। विद्यालयों में भी जनजाति शिक्षकों ने जनजाति बोली में पढ़ाने का आग्रह करना चाहिए। जनजाति समाज के पढे़-लिखें लोगों ने अपने बोली के लिए लिपि का संशोधन करना चाहिए अथवा भारतीय मूल के देवनागरी लिपि का अनुसरण करना चाहिए। अपनी-अपनी बोली में जो मौखिक ज्ञान परम्परा है उसे लिपिबद्ध करना चाहिए। साहित्य का सजृन करना चाहिए। एक प्रकार से यह माता सरस्वती की उपासना है।

इससे आगे कहे तो जो साहित्य का निर्माण करते है उन्हें सार्वजनिक रूप में पुरस्कार देने चाहिए, उन्हें सम्मानित करना चाहिए। ऐसा करने से भाषा एवं बोलियों के प्रति आदर बढे़गा। समाज में एक उत्साह देखने को मिलेगा।

जब साहित्य का निर्माण होना प्रारम्भ होता है तो उसे घर-घर तक वितरण करना चाहिए। जैसे अर्थ प्राप्ति के लिए उद्यमि होना आवश्यक है वैसे ही इसके लिए सतत कार्य करने की आवश्यकता है। भाषा अथवा बोली का विकास स्वयं समाज करे तभी होगा। उसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। केवल मन में सदिच्छा रखने मात्र से नहीं चलेगा।

इस देश के कई महापुरूषों ने मातृभाषा में शिक्षा के पक्ष में अपने विचार कहे है। कुछ शिक्षाविद् और विद्वान तो आज भी मातृभाषा में शिक्षा के लिए कार्य कर रहे है। परन्तु उसी देश में एक वास्तविकता यह भी है कि समाज में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के प्रति रूजान बढ़ते दिखाई देता है। आज-कल भारत के कई शहरों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय देखने को मिलते है। इसका अनुसरण करते हुए ग्रामीण क्षेत्र में और सुदूर जनजाति क्षेत्र में भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय ही देखने को मिलते है। यह केवल परिवर्तन नहीं परन्तु अत्यंत चिंता का विषय है।

21 फरवरी को प्रतिवर्ष ‘मातृभाषा दिवस’ मनाया जाता है। उस दिन जनजाति समाज के पढे़-लिखें लोगों ने अपनी भाषा अथवा बोली के सरंक्षण एवं संवर्धन के लिए संकल्पित होना चाहिए। अपनी बोली को बचाने, जहाँ खडे़ है वहाँ से आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। पढे़-लिखें लोगों की यह जिम्मेदारी है कि वे समाज का दिशादर्शन करे और स्वयं कार्यरत बने।

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